Tuesday, September 4, 2007

अभिमान सौन्दर्य का

गर्व मत कर पुष्प अपनी अधखिली सुकुमारता पर
गूँजते चाहक भ्रमर की कामना की विवशता पर
मत अकड़ इस वायु विस्तृत फैलते मकरन्द ही पर
तितलियों का दिल लुभाती देह के इस रंग ही पर

पवन तुझको गोद में लेकर झुलाती है सदा
सूर्य की किरणें अभी तुझको हँसाती हैं सदा
किन्तु इतना ध्यान रख तू ऐ सुकोमल पुष्पवर
रूप के अभिमान की तो कुछ दिनों की है उमर

अन्त की तो कल्पना कर जरा को ला ध्यान में
वृद्ध सा मृतप्राय सा जब तू पड़ा उध्यान में
जिस पवन की गोद में तू झूलता था प्रेम से
उसी के इक तीव्र झोंके से गिरा तू भूमि पे

श्वास अन्तिम ले रहा तू है पड़ा अब भूमि पर
साथ देने आज तेरा है नहीं आता भ्रमर
सूर्य की अब वही किरणें जो हँसाती थीं तुझे
आज तेरे वृद्ध तन को हैं जलाती तपन से

अन्त के इस दृश्य को ही याद करके पुष्पवर
रंग का अभिमान मत कर गर्व मत कर रूप पर

क्या हुआ जो.....

क्या हुआ जो अब हमारे, स्वप्न में आने लगी हो

अधखिली सुकुमार सी जो कली थी वो खिल रही है
और उस पर ओस की जो बूँद थी वो हिल रही है
ओस की उस बूँद सा ही स्वच्छ निर्मल प्रेम मेरा
और उस कोमल कली के बदन जैसा रूप तेरा
वर्षा ऋतु के बादलों सी हृदय पर छाने लगी हो
क्या हुआ जो अब हमारे, स्वप्न में आने लगी हो


चाँद से नजरें मिलाकर पूछने अब ये लगा मन
क्या कभी देखा धरा पर तुम सदृश सौन्दर्य का धन?
रूप यौवन औ गुँणों की कल्पना से भी अपरिमित
मंजु मुख की कांति जिसकी सदा करती जग प्रफुल्लित
हाँ तुम्हीं तो काव्य बनकर छंद में आने लगी हो
क्या हुआ जो अब हमारे, स्वप्न में आने लगी हो


सूर्य की हों रश्मियाँ या चन्द्र की हो चाँदनी
नदी की लहरें हों या फिर खगों की कलरव ध्वनि
देखकर सौन्दर्य जिसका प्रकृति भी ऊर्जित होती है
रूप रस का पान करके स्वतः गीत सर्जित होती है
हाँ तुम्हीं तो कलम बनकर गीत लिखवाने लगी हो
क्या हुआ जो अब हमारे, स्वप्न में आने लगी हो