क्या हुआ जो अब हमारे, स्वप्न में आने लगी हो
अधखिली सुकुमार सी जो कली थी वो खिल रही है
और उस पर ओस की जो बूँद थी वो हिल रही है
ओस की उस बूँद सा ही स्वच्छ निर्मल प्रेम मेरा
और उस कोमल कली के बदन जैसा रूप तेरा
वर्षा ऋतु के बादलों सी हृदय पर छाने लगी हो
क्या हुआ जो अब हमारे, स्वप्न में आने लगी हो
चाँद से नजरें मिलाकर पूछने अब ये लगा मन
क्या कभी देखा धरा पर तुम सदृश सौन्दर्य का धन?
रूप यौवन औ गुँणों की कल्पना से भी अपरिमित
मंजु मुख की कांति जिसकी सदा करती जग प्रफुल्लित
हाँ तुम्हीं तो काव्य बनकर छंद में आने लगी हो
क्या हुआ जो अब हमारे, स्वप्न में आने लगी हो
सूर्य की हों रश्मियाँ या चन्द्र की हो चाँदनी
नदी की लहरें हों या फिर खगों की कलरव ध्वनि
देखकर सौन्दर्य जिसका प्रकृति भी ऊर्जित होती है
रूप रस का पान करके स्वतः गीत सर्जित होती है
हाँ तुम्हीं तो कलम बनकर गीत लिखवाने लगी हो
क्या हुआ जो अब हमारे, स्वप्न में आने लगी हो
2 comments:
too good sir! too good... :)..
one observation - don't u think 'dekh kar...' couplet (from end 4th and 3th lines) are out of meter... u may think reconstructing! but anyhow effect will remain same ;)!
Thanx
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